Monday 19 June 2017

रामविलास पासवान

रामविलास पासवान

रामविलास पासवान वर्तमान भारतीय दलित राजनीति के प्रमुख नेताओं में से एक हैं। वे लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष एवं राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार में केन्द्रीय मंत्री भी हैं। वे सोलहवीं लोकसभा में बिहार केहाजीपुर लोकसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं।
रामविलास पासवान
Ram Vilas Paswan.jpg

उपभोक्ता मामलात मंत्री, भारत सरकार
पदस्थ
कार्यालय ग्रहण 
26 मई 2015
प्रधानमंत्रीनरेन्द्र मोदी

केन्द्रीय रसायन एवं उर्वरक मंत्री
कार्यकाल
2004 - 2009
प्रधानमंत्रीमनमोहन सिँह

केन्द्रीय खनिज मंत्री
कार्यकाल
2001 - 2002
प्रधानमंत्रीअटल बिहारी वाजपेयी

केन्द्रीय सूचना एवं प्रचारण मंत्री
कार्यकाल
1999 - 2000
प्रधानमंत्रीअटल बिहारी वाजपेयी

कार्यकाल
1996 - 1998


जन्म5 जुलाई 1946 (आयु 70)
खगड़िया, बिहार
राजनीतिक दललोक जनशक्ति पार्टी
जीवन संगीरीना पासवान
बच्चेचिराग पासवान (पुत्र) व 3 पुत्रियां
निवासखगड़िया, बिहार
धर्महिन्दू धर्म

Dalit ramvilas paswan

Ram Vilas Paswan

Indian politician
Ram Vilas Paswan (born 5 July 1946) is an Indian politician, from Bihar and the current Minister of Consumer Affairs, Food and Public Distribution. Paswan is also the president of the Lok Janshakti Party, eight time Lok Sabhamember and former Rajya Sabha MP.[3]Started his political career as member ofSamyukta Socialist Party and was elected to the Bihar Legislative Assembly in 1969. Next he joined Lok Dal upon its formation in 1974, and became its general secretary. He opposed the emergency, and was arrested during the period. He entered the Lok Sabha in 1977, as a Janata Party member from Hajipurconstituency, was chosen again 1980, 1984, 1989, 1996 and 1998.write
 by navratna mandusiya
A social worker 

अनुसूचित जाति से बिहार के राज्यपाल राम नाथ कोविंद होंगे राष्ट्रपति के उम्मीदवार

नवरत्न मन्डुसिया की कलम से // रामनाथ  कोविन्द (जन्म १ अक्टूबर १९४५)
भारतीय जनता पार्टी के राजनेता हैं। वे राज्यसभा सदस्य रह चुके हैं तथा सम्प्रति बिहार के राज्यपाल हैं।

जीवन परिचय
राम नाथ कोविन्द का जन्म उत्तर प्रदेश के
कानपुर जिले की (वर्तमान में कानपुर देहात जिला ) , तहसील डेरापुर के एक छोटे से गांव परौंख में हुआ था। कोविन्द का सम्बन्ध कोरी या कोली जाति से है जो उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति के अंतर्गत आती है। वकालत की उपाधि लेने के पश्चात दिल्ली उच्च न्यायालय में वकालत प्रारम्भ की। वह १९७७ से १९७९ तक दिल्ली हाई कोर्ट में केंद्र सरकार के वकील रहे। ८ अगस्त २०१५ को बिहार के राज्यपाल के पद पर नियुक्ति हुई।

राजनीति
वर्ष १९९१ में भारतीय जनता पार्टी में सम्मिलित हो गये। वर्ष १९९४ में उत्तर प्रदेश राज्य से राज्य सभा [3] के निर्वाचित हुए। वर्ष २००० में पुनः उत्तरप्रदेश राज्य से राज्य सभा [3] के लिए निर्वाचित हुए। इस प्रकार कोविन्द लगातार १२ वर्ष तक राज्य सभा के सदस्य रहे। वह भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता भी रहे।

समाज सेवा
वह भाजपा दलित मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष और अखिल भारतीय कोली समाज अध्यक्ष भी रहे। वर्ष १९८६ में दलित वर्ग के कानूनी सहायता ब्युरो के महामंत्री भी रहे।

Saturday 17 September 2011

नमक सत्याग्रह


असहयोग आंदोलन समाप्त होने के कई वर्ष बाद तक महात्मा गाँधी ने अपने को समाज सुधार कार्यो पर केंद्रित रखा। 1928 में उन्होंने पुन:राजनीति में प्रवेश करने की सोची। उस वर्ष सभी श्वेत सदस्यों वाले साईमन कमीशन, जो कि उपनिवेश की स्थितियों की जाँच-पड़ताल के लिए इंग्लैंड से भेजा गया था, के विरुद्ध अखिल भारतीय अभियान चलाया जा रहा था। गाँधी जी ने स्वयं इस आंदोलन में भाग नहीं लिया था पर उन्होंने इस आंदोलन को अपना आशीर्वाद दिया था तथा इसी वर्ष बारदोली में होने वाले एक किसान सत्याग्रह के साथ भी उन्होंने ऐसा किया था। 1929 में दिसंबर के अंत में कांग्रेस ने अपना वार्षिक अधिवेशन लाहौर शहर में किया। यह अधिवेशन दो दृष्टियों से महत्वपूर्ण था : जवाहरलाल नेहरू का अध्यक्ष के रूप में चुनाव जो युवा पीढ़ी को नेतृत्व की छड़ी सौंपने का प्रतीक था और ‘पूर्ण स्वराज’ अथवा पूर्ण स्वतंत्रता की उद्घोषणा।

अब राजनीति की गति एक बार फ़िर बढ़ गई थी। 26 फ़रवरी 1930 को विभिन्न स्थानों पर राष्ट्रीय ध्वज फ़हराकर और देशभक्ति के गीत गाकर ‘स्वतंत्रता दिवस’ मनाया गया। गाँधी जी ने स्वयं सुस्पष्ट निर्देश देकर बताया कि इस दिन को कैसे मनाया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि यदि ;स्वतंत्रता की उद्घोषणा सभी गाँवों और सभी शहरों यहाँ तक कि— अच्छा होगा। अगर सभी जगहों पर एक ही समय में संगोष्ठियाँ हों तो अच्छा होगा। गाँधी जी ने सुझाव दिया कि नगाड़े पीटकर पारंपरिक तीरके से संगोष्ठी के समय की घोषणा की जाए। राष्ट्रीय ध्वज को फ़हराए जाने से समारोहों की शुरुआत होगी। दिन का बाकी हिस्सा किसी रचनात्मक कार्य में चाहे वह सूत कताई हो अथवा ‘अछूतों’ की सेवा अथवा हिंदुओं व मुसलमानों का पुनर्मिलन अथवा निषिद्ध कार्य अथवा ये सभी एक साथ करने में व्यतीत होगा और यह असंभव नहीं है। इसमें भाग लेने वाले लोग दृढ़तापूर्वक यह प्रतिज्ञा लेंगे कि अन्य लोगों की तरह भारतीय लोगों को भी स्वतंत्रता और अपने कठिन परिश्रम के फ़ल का आनंद लेने का अहरणीय अधिकार है और यह कि यदि कोई भी सरकार लोगों को इन अधिकरों से वंचित रखती है या उनका दमन करती है तो लोगों को इन्हें बदलने अथवा समाप्त करने का भी अधिकार है।

दाण्डी

‘स्वतंत्रता दिवस’ मनाए जाने के तुरंत बाद महात्मा गाँधी ने घोषणा की कि वे ब्रिटिश भारत के सर्वाध्कि घृणित कानूनों में से एक, जिसने नमक के उत्पादन और विक्रय पर राज्य को एकाधिकार दे दिया है, को तोड़ने के लिए एक यात्रा का नेतृत्व करेंगे। नमक एकाधिकार के जिस मुद्दे का उन्होंने चयन किया था वह गाँधी जी की कुशल समझदारी का एक अन्य उदाहरण
था। प्रत्येक भारतीय घर में नमक का प्रयोग अपरिहार्य था लेकिन इसके बावजूद उन्हें घरेलू प्रयोग के लिए भी नमक बनाने से रोका गया और इस तरह उन्हें दुकानों से उँफचे दाम पर नमक खरीदने के लिए बाध्य किया गया। नमक पर राज्य का एकाध्पित्य बहुत अलोकप्रिय था। इसी को निशाना बनाते हुए गाँधी जी अंग्रेजी शासन के खिलाफ़ व्यापक असंतोष को संघटित
करने की सोच रहे थे।

अधिकांश भारतीयों को गाँधी जी की इस चुनौती का महत्व समझ में आ गया था किन्तु अंग्रेजी राज को नहीं। हालाँकि गाँधी जी ने अपनी ‘नमक यात्रा’ की पूर्व सूचना वाइसराय लार्ड इर्विन को दे दी थी किन्तु इर्विन उनकी इस कार्रवाही के महत्व को न समझ सके। 12 मार्च 1930 को गाँधी जी ने साबरमती में अपने आश्रम से समुद्र की ओर चलना शुरू किया। तीन हपतों बाद वे अपने गंतव्य स्थान पर पहुँचे। वहाँ उन्होने मुट्‌ठी भर नमक बनाकर स्वयं को कानून की निगाह में अपराधी बना दिया। इसी बीच देश के अन्य भागों में समान्तर नमक यात्राएँ अयोजित की गई।

असहयोग आन्दोलन की तरह अधिकॄत रूप से स्वीकॄत राष्ट्रीय अभियान के अलावा भी विरोध की असंख्य धाराएँ थीं। देश के विशाल भाग में किसानों ने दमनकारी औपनिवेशिक वन कानूनों का उल्लंघन किया जिसके कारण वे और उनके मवेशी उन्हीं जंगलों में नहीं जा सकते थे जहाँ एक जमाने में वे बेरोकटोक घूमते थे। कुछ कस्बों में पैफक्ट्री कामगार हड़ताल पर चले गए, वकीलों ने ब्रिटिश अदालतों का बहिष्कार कर दिया और विद्यार्थियों ने सरकारी शिक्षा संस्थानों में पढ़ने से इनकार कर दिया। 1920-22 की तरह इस बार भी गाँधी जी के आह्‌वान ने तमाम भारतीय वर्गों को औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध अपना असंतोष व्यक्त करने के लिए प्रेरित किया। जवाब में सरकार असंतुष्टों को हिरासत में लेने लगी। नमक सत्याग्रह के सिलसिले में लगभग 60,000 लोगों को गिरफ़्तार किया गया। गिरफ़्तार होने वालों में गाँधी जी भी थे। समुद्र तट की ओर गाँधी जी की यात्रा की प्रगति का पता उनकी गतिविधियों पर नजर रखने के लिए तैनात पुलिस अफ़सरों द्वारा भेजी गई गोपनीय रिपोट से लगाया जा सकता है। इन रिपोटो में रास्ते के गाँवों में गाँधी जी द्वारा दिए गए भाषण भी मिलते हैं जिनमें उन्होंने स्थानीय अधिकारियों से आह्‌वान किया था कि वे सरकारी नौकरियाँ छोड़कर स्वतंत्रता संघर्ष में शामिल हो जाएँ।

वसना नामक गाँव में गाँधी जी ने ऊँची जाति वालों को संबोधित करते हुए कहा था कि यदि आप स्वराज के हक में आवाज उठाते हैं तो आपको अछूतों की सेवा करनी पड़ेगी। सिर्फ़ नमक कर या अन्य करों के खत्म हो जाने से आपको स्वराज नहीं मिल जाएगा। स्वराज के लिए आपको अपनी उन गल्तियों का प्रायश्चित करना होगा जो आपने अछूतों के साथ की हैं। स्वराज के लिए हिंदू, मुसलमान, पारसी और सिख, सबको एकजुट होना पडेगा। ये स्वराज की सीढ़ियाँ हैं। फ्पुलिस के जासूसों ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि गाँधी जी की सभाओं में तमाम जातियों के औरत-मर्द शामिल हो रहे हैं। उनका कहना था कि हजारों वॉलंटियर राष्ट्रवादी उद्देश्य के लिए सामने आ रहे हैं। उनमें से बहुत सारे ऐसे सरकारी अफ़सर थे जिन्होंने औपनिवेशिक शासन में अपने पदों से इस्तीफ़ा दे दिए थे। सरकार को भेजी अपनी रिपोर्ट में जिला पुलिस सुपरिंटेंडेंट ;पुलिस अधीक्षक ने लिखा था कि फ्श्री गाँधी शांत और निश्चिंत दिखाई दिए। वे जैसे-जैसे आगे बढ़ रहे हैं, उनकी ताकत बढ़ती जा रही है।

नमक यात्रा की प्रगति को एक और बात से भी समझा जा सकता है। अमेरिकी समाचार पत्रिका टाइम को गाँधी जी की कदकाठी पर हँसी आती थी। पत्रिका ने उनके तकुए जैसे शरीरय् और मकड़ी जैसे पैरो का खूब मजाक उड़ाया था। इस यात्रा के बारे में अपनी पहली रिपोर्ट में ही टाइम ने नमक यात्रा के मंजिल तक पहुँचने पर अपनी गहरी शंका व्यक्त कर दी थी। उसने दावा किया कि दूसरे दिन पैदल चलने के बाद गाँधी जी जमीन पर पसर गए थे। पत्रिका को इस बात पर विश्वास नहीं था कि इस मरियल साधु के शरीर में और आगे जाने की ताकत बची है। लेकिन एक रात में ही पत्रिका की सोच बदल गई। टाइम ने लिखा कि इस यात्रा को जो भारी जनसमर्थन मिल रहा है उसने अंग्रेज शासकों को बेचैन कर दिया है। अब वे भी गाँधी जी को ऐसा साधु और जननेता कह कर सलामी देने लगे हैं जो ईसाई धिर्मावलंबियों के खिलाफ़ ईसाई तरीकों का ही हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहा है।

संवाद

नमक यात्रा कम से कम तीन कारणों से उल्लेखनीय थी। पहला, यही वह घटना थी जिसके चलते महात्मा गाँधी दुनिया की नजर में आए। इस यात्रा को यूरोप और अमेरिकी प्रेस ने व्यापक कवरेज दी। दूसरे, यह पहली राष्ट्रवादी गतिविधि थी जिसमें औरतों ने भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। समाजवादी कार्यकर्ता कमलादेवी चटोपाध्याय ने गाँधी जी को समझाया कि वे अपने आंदोलनों को पुरुषों तक ही सीमित न रखें। कमलादेवी खुद उन असंख्य औरतों में से एक थीं जिन्होंने नमक या शराब कानूनों का उल्लंघन करते हुए सामूहिक गिरफ़तारी दी थी। तीसरा और संभवत: सबसे महत्वपूर्ण कारण यह था कि नमक यात्रा के कारण ही अंग्रेजों को यह अहसास हुआ था कि अब उनका राज बहुत दिन नहीं टिक सकेगा और उन्हें भारतीयों को भी सत्ता में हिस्सा देना पड़ेगा।

भारत छोड़ो आंदोलन


क्रिप्स मिशन की विफ़लता के बाद महात्मा गाँधी ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ़ अपना तीसरा बड़ा आंदोलन छेड़ने का फ़ैसला लिया। अगस्त 1942 में शुरू हुए इस आंदोलन को अंग्रेजों भारत छोड़ो का नाम दिया गया था। हालांकि गाँधी जी को फ़ौरन गिरफ़्तार कर लिया गया था लेकिन देश भर के युवा कार्यकर्ता हड़तालों और तोड़फ़ोड़ की कार्रवाइयों के जरिए आंदोलन चलाते रहे। कांग्रेस में जयप्रकाश नारायण जैसे समाजवादी सदस्य भूमिगत प्रतिरोधि गतिविधियों में सबसे ज्यादा सक्रिय थे। पश्चिम में सतारा और पूर्व में मेदिनीपुर जैसे कई जिलों में स्वतंत्र सरकार ;प्रतिसरकार की स्थापना कर दी गई थी। अंग्रेजों ने आंदोलन के प्रति काफ़ी सख्त रवैया अपनाया फ़िर भी इस विद्रोह को दबाने में सरकार को साल भर से ज्यादा समय लग गया।

भारत छोड़ो आंदोलन सही मायने में एक जनांदोलन था जिसमें लाखों आम हिंदुस्तानी शामिल थे। इस आंदोलन ने युवाओं को बड़ी संख्या में अपनी ओर आकर्षित किया। उन्होंने अपने कॉलेज छोड़कर जेल का रास्ता अपनाया। जिस दौरान कांग्रेस के नेता जेल में थे उसी समय जिन्ना तथा मुस्लिम लीग के उनके साथी अपना प्रभाव क्षेत्र फ़ैलाने में लगे थे। इन्हीं सालों में लीग को पंजाब और सिंध में अपनी पहचान बनाने का मौका मिला जहाँ अभी तक उसका कोई खास वजूद नहीं था।

जून 1944 में जब विश्व युद्ध समाप्ति की ओर था तो गाँधी जी को रिहा कर दिया गया। जेल से निकलने के बाद उन्होंने कांग्रेस और लीग के बीच फ़ासले को पाटने के लिए जिन्ना के साथ कई बार बात की। 1945 में ब्रिटेन में लेबर पार्टी की सरकार बनी। यह सरकार भारतीय स्वतंत्रता के पक्ष में थी। उसी समय वायसराय लॉर्ड वावेल ने कांग्रेस और मुस्लिम लीग के प्रतिनिधियों के बीच कई बैठकों का आयोजन किया।

1946 की शुरुआत में प्रांतीय विधान मंडलों के लिए नए सिरे से चुनाव कराए गए। सामान्य श्रेणी में कांग्रेस को भारी सफ़लता मिली। मुसलमानों के लिए आरक्षित सीटों पर मुस्लिम लीग को भारी बहुमत प्राप्त हुआ। राजनीतिक ध्रुवीकरण पूरा हो चुका था। 1946 की गर्मियों में कैबिनेट मिशन भारत आया। इस मिशन ने कांग्रेस और मुस्लिम लीग को एक ऐसी संघीय व्यवस्था पर राज़ी करने का प्रयास किया जिसमें भारत के भीतर विभिन्न प्रांतों को सीमित स्वायत्तता दी जा सकती थी। कैबिनेट मिशन का यह प्रयास भी विफ़ल रहा। वार्ता टूट जाने के बाद जिन्ना ने पाकिस्तान की स्थापना के लिए लीग की माँग के समर्थन में एक प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस का आह्‌वान किया। इसके लिए 16 अगस्त, 1946 का दिन तय किया गया था। उसी दिन कलकत्ता में खूनी संघर्ष शुरू हो गया। यह हिंसा कलकत्ता से शुरू होकर ग्रामीण बंगाल, बिहार और संयुक्त प्रांत व पंजाब तक फ़ैल गई। कुछ स्थानों पर मुसलमानों को तो कुछ अन्य स्थानों पर हिंदुओं को निशाना बनाया गया।

फ़रवरी 1947 में वावेल की जगह लॉर्ड माउंटबेटन को वायसराय नियुक्त किया गया। उन्होंने वार्ताओं के एक अंतिम दौर का आह्‌वान किया। जब सुलह के लिए उनका यह प्रयास भी विफ़ल हो गया तो उन्होंने ऐलान कर दिया कि ब्रिटिश भारत को स्वतंत्रता दे दी जाएगी लेकिन उसका विभाजन भी होगा। औपचारिक सत्ता हस्तांतरण के लिए 15 अगस्त का दिन नियत किया गया। उस दिन भारत के विभिन्न भागों में लोगों ने जमकर खुशियाँ मनायीं। दिल्ली में जब संविधान सभा के अध्यक्ष ने मोहनदास करमचंद गाँधी को राष्ट्रपिता की उपाधि देते हुए संविधान सभा की बैठक शुरू की तो बहुत देर तक करतल ध्वनि होती रही। असेम्बली के बाहर भीड़ महात्मा गाँधी की जय के नारे लगा रही थी।

5- आखिरी, बहादुराना दिन

15 अगस्त 1947 को राजधानी में हो रहे उत्सवों में महात्मा गाँधी नहीं थे। उस समय वे कलकत्ता में थे लेकिन उन्होंने वहाँ भी न तो किसी कार्यक्रम में हिस्सा लिया, न ही कहीं झंडा फ़हराया। गाँधी जी उस दिन 24 घंटे के उपवास पर थे। उन्होंने इतने दिन तक जिस स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया था वह एक अकल्पनीय कीमत पर उन्हें मिली थी। उनका राष्ट्र विभाजित था हिंदू-मुसलमान एक-दूसरे की गर्दन पर सवार थे। उनके जीवनी लेखक डी-जी- तेंदुलकर ने लिखा है कि सितंबर और अक्तूबर के दौरान गाँधी जी फ्पीड़ितों को सांत्वना देते हुए अस्पतालों और शरणार्थी शिविरों के चक्कर लगा रहे थे। उन्होंने सिखों, हिंदुओं और मुसलमानों से आह्‌वान किया कि वे अतीत को भुला कर अपनी पीड़ा पर ध्यान देने की बजाय एक-दूसरे के प्रति भाईचारे का हाथ बढ़ाने तथा शांति से रहने का संकल्प लें।

गाँधी जी और नेहरू के आग्रह पर कांग्रेस ने अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर एक प्रस्ताव पारित कर दिया। कांग्रेस ने दो राष्ट्र सिद्धान्त को कभी स्वीकार नहीं किया था। जब उसे अपनी इच्छा के विरुद्ध बँटवारे पर मंजूरी देनी पड़ी तो भी उसका दृढ़ विश्वास था कि भारत बहुत सारे धर्मों और बहुत सारी नस्लों का देश है और उसे ऐसे ही बनाए रखा जाना चाहिए। पाकिस्तान में हालात जो रहें, भारत एक लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र होगा जहाँ सभी नागरिकों को पूर्ण अधिकार प्राप्त होंगे तथा धर्म के आधार पर भेदभाव के बिना सभी को राज्य की ओर से संरक्षण का अधिकार होगा। कांग्रेस ने आश्वासन दिया कि वह अल्पसंख्यकों के नागरिक अधिकारों के किसी भी अतिक्रमण के विरुद्ध हर मुमकिन रक्षा करेगी।

ईसा मसीह


ईसा मसीह (जन्म- संभवत: 6 ई.पू., बेथलेहेम; मृत्यु- 30-36 ई.पू.) ईसाई धर्म के प्रवर्तक थे। ईसा इब्रानी शब्द येशूआ का विकृत रूप है, इसका अर्थ है मुक्तिदाता। यहूदी धर्मग्रंथ में मशीअह ईश्वरप्रेरित मुक्तिदाता की पदवी है, इसका अर्थ है अभिषिक्त, यूनानी भाषा में इसका अनुवाद ख्रीस्तोस है। इस प्रकार ईसा मसीह पश्चिम में येसु ख्रोस्त के नाम से विख्यात हैं।
जीवनी पर पर्याप्त प्रकाश

तासितस, सुएतोन तथा फ़्लावियस योसेफ़स जैसे प्राचीन रोमन तथा यहूदी इतिहासकारों ने ईसा तथा उनके अनुयायियों का तो उल्लेख किया है किंतु उनकी जीवनी अथवा शिक्षा का वर्णन नहीं किया। इस प्रकार की सामग्री हमें बाइबिल में ही मिलती है, विशेषकर चारों सुसमाचारों (गास्पेलों) में जिनकी रचना प्रथम शताब्दी ईसवी के उत्तरार्ध में हुई थी। सुसमाचारों का प्रधान उद्देश्य है ईसा की शिक्षा प्रस्तुत करना, उनके किए हुए चमत्कारों के वर्णन द्वारा उनके ईश्वरत्व पर विश्वास उत्पन्न करना, तथा मृत्यु के बाद उनके पुनरुत्थान का साक्ष्य देना। किंतु वे इन विषयों के साथ-साथ ईसा की जीवनी पर भी पर्याप्त प्रकाश डालते हैं।
जन्म

बाइबिल के अनुसार ईसा की माता मरियम गलीलिया प्रांत के नाज़रेथ गाँव की रहने वाली थीं। उनकी सगाई दाऊद के राजवंशी यूसुफ नामक बढ़ई से हुई थी। विवाह के पहले ही वह कुँवारी रहते हुए ही ईश्वरीय प्रभाव से गर्भवती हो गईं। ईश्वर की ओर से संकेत पाकर यूसुफ ने उन्हें पत्नीस्वरूप ग्रहण किया। इस प्रकार जनता ईसा की अलौकिक उत्पत्ति से अनभिज्ञ रही। विवाह संपन्न होने के बाद यूसुफ गलीलिया छोड़कर यहूदिया प्रांत के बेथलेहेम नामक नगरी में जाकर रहने लगे, वहाँ ईसा का जन्म हुआ। शिशु को राजा हेरोद के अत्याचार से बचाने के लिए यूसुफ मिस्र भाग गए। हेरोद 4 ई.पू. में चल बसे अत: ईसा का जन्म संभवत: 6 ई.पू. में हुआ था। हेरोद के मरण के बाद यूसुफ लौटकर नाज़रेथ गाँव में बस गए। ईसा जब बारह वर्ष के हुए, तो यरुशलम में दो दिन रुककर पुजारियों से ज्ञान चर्चा करते रहे। सत्य को खोजने की वृत्ति उनमें बचपन से ही थी। बाइबिल में उनके 13 से 29 वर्षों के बीच का कोई ‍ज़िक्र नहीं मिलता। 30 वर्ष की उम्र में उन्होंने यूहन्ना (जॉन) से दीक्षा ली। दीक्षा के बाद वे लोगों को शिक्षा देने लगे।[1] कुछ समय बाद ईसा ने यूसुफ का पेशा सीख लिया और लगभग 30 साल की उम्र तक उसी गाँव में रहकर वे बढ़ई का काम करते रहे।
बपतिस्मा

ईसा के अंतिम दो तीन वर्ष समझने के लिए उस समय की राजनीतिक तथा धार्मिक परिस्थिति ध्यान में रखनी चाहिए। समस्त यहूदी जाति रोमन सम्राट् तिबेरियस के अधीन थी तथा यहूदिया प्रांत में पिलातस नामक रोमन राज्यपाल शासन करता था। यह राजनीतिक परतंत्रता यहूदियों को बहुत अखरती थी। वे अपने धर्मग्रंथ में वर्णित मसीह की राह देख रहे थे क्योंकि उन्हें आशा थी कि वह मसीह उनको रोमियों की ग़ुलामी से मुक्त करेंगे। दूसरी ओर, उनके यहाँ पिछली चार शताब्दियों में एक भी नबी प्रकट नहीं हुआ, अत: जब सन 27 ई. में योहन बपतिस्ता यह संदेश लेकर बपतिस्मा देने लगे कि 'पछतावा करो, स्वर्ग का राज्य निकट है', तो यहूदियों में उत्साह की लहर दौड़ गई और वे आशा करने लगे कि मसीह शीघ्र ही आनेवाला है।

उस समय ईसा ने अपने औजार छोड़ दिए तथा योहन से बपतिस्मा ग्रहण करने के बाद अपने शिष्यों को वह चुनने लगे और उनके साथ समस्त देश का परिभ्रमण करते हुए उपदेश देने लगे। यह सर्वविदित था कि ईसा बचपन से अपना सारा जीवन नाज़रेथ में बिताकर बढ़ई का ही काम करते रहे। अत: उनके अचानक धर्मोपदेशक बनने पर लोगों को आश्चर्य हुआ। सब ने अनुभव किया कि ईसा अत्यंत सरल भाषा तथा प्राय: दैनिक जीवन के दृष्टांतों का सहारा लेकर अधिकारपूर्वक मौलिक धार्मिक शिक्षा दे रहे हैं।
धर्म का आधार
ईसा यहूदियों का धर्मग्रंथ (ईसाई बाइबिल का पूर्वार्ध) प्रामाणिक तो मानते थे किंतु वह शास्त्रियों की भाँति उसकी निरी व्याख्या ही नहीं करते थे, प्रत्युत उसके नियमों में परिष्कार करने का भी साहस करते थे। 'पर्वत-प्रवचन' में उन्होंने कहा--
मैं मूसा का नियम तथा नबियों की शिक्षा रद्द करने नहीं, बल्कि पूरी करने आया हूँ।'
वह यहूदियों के पर्व मनाने के लिए राजधानी जेरूसलम के मंदिर में आया तो करते थे, किंतु वह यहूदी धर्म को अपूर्ण समझते थे। वह शास्त्रियों द्वारा प्रतिपादित जटिल कर्मकांड का विरोध करते थे और नैतिकता को ही धर्म का आधार मानकर उसी को अपेक्षाकृत अधिक महत्व देते थे। ईसा के अनुसार धर्म का सार दो बातों में है-
मनुष्य का परमात्मा को अपना दयालु पिता समझकर समूचे हृदय से प्यार करना तथा उसी पर भरोसा रखना।
अन्य सभी मनुष्यों को भाई बहन मानकर किसी से भी बैर न रखना, अपने विरुद्ध किए हुए अपराध क्षमा करना तथा सच्चे हृदय से सबका कल्याण चाहना। जो यह भ्रातृप्रेम निबाहने में असमर्थ हो वह ईश्वरभक्त होने का दावा न करे, भगवद्भक्ति की कसौटी भ्रातृप्रेम ही है।

सूली पर चढ़ाये हुए (क्रुसिफ़ाइड) ईसा मसीह

जनता इस शिक्षा पर मुग्ध हुई तथा रोगियों को चंगा करना, मुर्दो को जलाना आदि, उनके द्वारा किए गये चमत्कार देखकर जनता ने ईसा को नबी के रूप में स्वीकार किया। तब ईसा ने धीरे-धीरे यह प्रकट किया कि मैं ही मसीह, ईश्वर का पुत्र हूँ, स्वर्ग का राज्य स्थापित करने स्वर्ग से उतरा हूँ। यहूदी अपने को ईश्वर की चुनी हुई प्रजा समझते थे तथा बाइबिल में जो मसीह और स्वर्ग के राज्य की प्रतिज्ञा है उसका एक भौतिक एवं राष्ट्रीय अर्थ लगाते थे। ईसा ने उन्हें समझाया कि मसीह यहूदी जाति का नेता बनकर उसे रोमियों की ग़ुलामी से मुक्त करने नहीं प्रत्युत सब मनुष्यों को पाप से मुक्त करने आए हैं। स्वर्ग के राज्य पर यहूदियों का एकाधिकार नहीं है, मानव मात्र इसका सदस्य बन सकता है। वास्तव में स्वर्ग का राज्य ईसा पर विश्वास करने वालों का समुदाय है जो दुनिया के अंत तक उनके संदेश का प्रचार करता रहेगा। अपनी मृत्यु के बाद उस समुदाय के संगठन और शासन के लिए ईसा ने बारह शिष्यों को चुनकर उन्हें विशेष शिक्षण और अधिकार प्रदान किए।
प्राणदंड

स्वर्ग के राज्य के इस आध्यात्मिक स्वरूप के कारण ईसा के प्रति यहूदी नेताओं में विरोध उत्पन्न हुआ। वे समझने लगे कि ईसा स्वर्ग का जो राज्य स्थापित करना चाहते हैं वह एक नया धर्म है जो यरुशलम के मंदिर से कोई संबंध नहीं रख सकता। अंततोगत्वा उन्होंने (संभवत: सन 30 ई.में) ईसा को गिरफ़्तार कर लिया। सन 29 ई. को प्रभु ईसा गधे पर चढ़कर यरुशलम पहुँचे। वहीं उनको दंडित करने का षड्यंत्र रचा गया। उनके शिष्य जुदास ने उनके साथ विश्‍वासघात किया। यहूदियों की महासभा ने उनको इसलिए प्राणदंड दिया कि वह मसीह तथा ईश्वर का पुत्र होने का दावा करते हैं। रोमन राज्यपाल ने इस दंडाज्ञा का समर्थन किया और ईसा को क्रूस पर मरने का आदेश दिया। अंतत: उन्हें विरोधियों ने पकड़कर क्रूस पर लटका दिया। ईसा ने क्रूस पर लटकते समय ईश्वर से प्रार्थना की, 'हे प्रभु, क्रूस पर लटकाने वाले इन लोगों को क्षमा कर। वे नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं।'[1]
स्वर्गारोहण

ईसा की गिरफ़्तारी पर उनके सभी शिष्य विचलित होकर छिप गए थे। उनकी मृत्यु के बाद उन्होंने राज्यपाल की आज्ञा से उनको क्रूस से उतारकर दफ़ना दिया। दफ़न के तीसरे दिन ईसा की क़ब्र ख़ाली पाई गई, उसी दिन से, आस्थावानों का विश्वास है, वह पुर्नजीवित होकर अपने शिष्यों को दिखाई देने और उनके साथ वार्तालाप भी करने लगे। उस समय ईसा ने अपने शिष्यों को समस्त जातियों में जाकर अपने संदेश का प्रचार करने का आदेश दिया। पुनरुत्थान के 40 वें दिन ईसाई विश्वास के अनुसार, ईसा का स्वर्गारोहण हुआ।
व्यक्तित्व

ईसा की आकृति का कोई भी प्रामणिक चित्र अथवा वर्णन नहीं मिलता, तथापि बाइबिल में उनका जो थोड़ा बहुत चरित्रचित्रण हुआ है उससे उनका व्यक्तित्व प्रभावशाली होने के साथ ही अत्यंत आकर्षक सिद्ध हो जाता है। ईसा 30 साल की उम्र तक मज़दूर का जीवन बिताने के बाद धर्मोपदेशक बने थे, अत: वह अपने को जनसाधारण के अत्यंत निकट पाते थे। जनता भी उनकी नम्रता और मिलनसारिता से आकर्षित होकर उनको घेरे रहती थी, यहाँ तक कि उनको कभी-कभी भोजन करने तक की फुरसत नहीं मिलती थी। वह बच्चों को विशेष रूप से प्यार करते थे तथा उनको अपने पास बुला बुलाकर आशीर्वाद दिया करते थे। वह प्रकृति के सौंदर्य पर मुग्ध थे तथा अपने उपदेशों में पुष्पों, पक्षियों आदि का उपमान के रूप में प्राय: उल्लेख करते थे। वह धन दौलत को साधना में बाधा समझकर धनियों को सावधान किया करते थे तथा दीन दुखियों के प्रति विशेष रूप से आकर्षित होकर प्राय: रोगियों को स्वास्थ्य प्रदान कर अपनी अलौकिक शक्ति को व्यक्त करते थे, ऐसा लोगों का विश्वास है। वह पतितों के साथ सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करने वाले पतितपावन थे तथा शास्त्रियों के धार्मिक आंडबर के निंदक थे। एक बार उन्होंने उन धर्मपाखंडियों से कहा- वेश्याएँ तुम लोगों से पहले ईश्वर के राज्य में प्रवेश करेंगी। वह पिता परमेश्वर को अपने जीवन का केंद्र बनाकर बहुधा रात भर अकेले ही प्रार्थना में लीन रहते थे।

सहृदय और मिलनसार होते हुए भी वह नितांत अनासक्त और निर्लिप्त थे। आत्मसंयमी होते हुए भी उन्होंने कभी शरीर गलाने वाली घोर तपस्या नहीं की। वह पाप से घृणा करते थे, पापियों से नहीं। अपने को ईश्वर का पुत्र तथा संसार का मुक्तिदाता कहते हुए भी अहंकारशून्य और अत्यंत विनम्र थे। मनुष्यों में अपना स्नेह वितरित करते हुए भी वह अपना संपूर्ण प्रेम ईश्वर को निवेदित करते थे। इस प्रकार ईसा में एकांगीपन अथवा उग्रता का सर्वथा अभाव है, उनका व्यक्तित्व पूर्ण रूप से संतुलित है।
ईसा मसीह के शिष्य

सूली पर चढ़ाये हुए (क्रुसिफ़ाइड) ईसा मसीह

यीशु के कुल बारह शिष्य थे-
पीटर
एंड्रयू
जेम्स (जबेदी का बेटा)
जॉन
फिलिप
बर्थोलोमियू
मैथ्यू
थॉमस
जेम्स (अल्फाइयूज का बेटा)
संत जुदास
साइमन द जिलोट
मत्तिय्याह

सूली के बाद ही उनके ‍शिष्य ईसा की वाणी लेकर 50 ईस्वी में हिन्दुस्तान आए थे। उनमें से एक 'थॉमस' ने ही भारत में ईसा के संदेश को फैलाया। उन्हीं की एक किताब है- 'ए गॉस्पेल ऑफ़ थॉमस'। चेन्नई शहर के सेंट थामस माउंट पर 72 ईस्वी में थॉमस एक भील के भाले से मारे गए।[1]
बाइबिल
मुख्य लेख : बाइबिल

बाइबिल ईसाइयों का पवित्र धर्मग्रंथ है। इसमें पुराने सिद्धांत या नियम को भी शामिल किया गया है। इसमें यहूदी धर्म और यहूदी पौराणिक कहानियों, नियमों आदि बातों का वर्णन है। नए नियम के अंतर्गत ईसा के जीवन और दर्शन के बारे में उल्लेख है। इसमें ख़ास तौर पर चार शुभ संदेश हैं जो ईसा के चार अनुयायियों मत्ती, लूका, युहन्ना और मरकुस द्वारा वर्णित हैं।[1]

दयानंद सरस्वती


महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती (जन्म- 1824 ई., गुजरात, भारत; मृत्यु- 1883 ई.) आर्य समाज के प्रवर्तक और प्रखर सुधारवादी सन्यासी थे। जिस समय केशवचन्द्र सेन ब्रह्मसमाज के प्रचार में संलग्न थे लगभग उसी समय दण्डी स्वामी विरजानन्द की मथुरा पुरी स्थित कुटी से प्रचण्ड अग्निशिखा के समान तपोबल से प्रज्वलित, वेदविद्यानिधान एक सन्यासी निकला, जिसने पहले-पहल संस्कृतज्ञ विद्वात्संसार को वेदार्थ और शास्त्रार्थ के लिए ललकारा। यह सन्यासी स्वामी दयानन्द सरस्वती थे।

प्राचीन ऋषियों के वैदिक सिद्धांतों की पक्षपाती प्रसिद्ध संस्था, जिसके प्रतिष्ठाता स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म गुजरात के भूतपूर्व मोरवी राज्य के एक गाँव में सन 1824 ई. में हुआ था। इनका प्रारंभिक नाम मूलशंकर तथा पिता का नाम अम्बाशंकर था। स्वामी दयानन्द बाल्यकाल में शंकर के भक्त थे। यह बड़े मेधावी और होनहार थे। ब्रह्मचर्यकाल में ही ये भारतोद्धार का व्रत लेकर घर से निकल पड़े। इनके जीवन को मोटे तौर से तीन भागों में बाँट सकते हैं:
घर का जीवन(1824-1845),
भ्रमण तथा अध्ययन (1845-1863) एवं
प्रचार तथा सार्वजनिक सेवा। (1863-1883)

स्वामी दयानन्द जी के प्रारम्भिक घरेलू जीवन की तीन घटनाएँ धार्मिक महत्त्व की हैं :
चौदह वर्ष की अवस्था में मूर्तिपूजा के प्रति विद्रोह (जब शिवचतुर्दशी की रात में इन्होंने एक चूहे को शिव की मूर्ति पर चढ़ते तथा उसे गन्दा करते देखा),
अपनी बहिन की मृत्यु से अत्यन्त दु:खी होकर संसार त्याग करने तथा मुक्ति प्राप्त करने का निश्चय और
इक्कीस वर्ष की आयु में विवाह का अवसर उपस्थित जान, घर से भागना। घर त्यागने के पश्चात 18 वर्ष तक इन्होंने सन्यासी का जीवन बिताया। इन्होंने बहुत से स्थानों में भ्रमण करते हुए कतिपय आचार्यों से शिक्षा प्राप्त की।
बहुत से स्थानों में भ्रमण करते हुए इन्होंने कतिपय आचार्यों से शिक्षा प्राप्त की। प्रथमत: वेदान्त के प्रभाव में आये तथा आत्मा एवं ब्रह्म की एकता को स्वीकार किया। ये अद्वैत मत में दीक्षित हुए एवं इनका नाम 'शुद्ध चैतन्य" पड़ा। पश्चात ये संन्यासियों की चतुर्थ श्रेणी में दीक्षित हुए एवं
दयानन्द सरस्वती
Dayanand Saraswati
यहाँ इनकी प्रचलित उपाधि दयानन्द सरस्वती हुई।
दयानन्द सरस्वती
Dayanand Saraswati फिर इन्होंने योग को अपनाते हुए वेदान्त के
सभी सिद्धान्तों को छोड़ दिया। दयानन्द सरस्वती के मध्य जीवन काल में जिस महापुरुष ने सबसे बड़ा धार्मिक प्रभाव डाला, वे थे मथुरा के प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द, जो वैदिक साहित्य के माने हुए विद्वान थे। उन्होंने इन्हें वेद पढ़ाया । वेद की शिक्षा दे चुकने के बाद उन्होंने इन शब्दों के साथ दयानन्द को छुट्टी दी "मैं चाहता हूँ कि तुम संसार में जाओं और मनुष्यों में ज्ञान की ज्योति फैलाओ।" संक्षेप में इनके जीवन को हम पौराणिक हिन्दुत्व से आरम्भ कर दार्शनिक हिन्दुत्व के पथ पर चलते हुए हिन्दुत्व की आधार शिला वैदिक धर्म तक पहुँचता हुआ पाते हैं। इन्होंने शैवमत एवं वेदान्त का परित्याग किया, सांख्ययोग को अपनाया जो उनका दार्शनिक लक्ष्य था और इसी दार्शनिक माध्यम से वेद की भी व्याख्या की। जीवन के अन्तिम बीस वर्ष इन्होंने जनता को अपना संदेश सुनाने में लगाये। दक्षिण में बम्बई से पूरा, उत्तर में कलकत्ता से लाहौर तक इन्होंने अपनी शिक्षाएँ घूम-घूम कर दीं। पण्डितों, मौलवियों एवं पादरियों से इन्होंने शास्त्रार्थ किया, जिसमें काशी का शास्त्रार्थ महत्त्वपूर्ण था। इस बीच इन्होंने साहित्यकार्य भी किये। चार वर्ष की उपदेश यात्रा के पश्चात ये गंगातट पर स्वास्थ्य सुधारने के लिए फिर बैठ गये। ढाई वर्ष के बाद पुन: जनसेवा का कार्य आरम्भ किया।

1863 से 1875 ई. तक स्वामी जी देश का भ्रमण करके अपने विचारों का प्रचार करते रहें। उन्होंने वेदों के प्रचार का वीणा उठाया और इस काम को पूरा करने के लिए 7 अप्रैल 1875 ई. को 'आर्य समाज' नामक संस्था की स्थापना की। शीघ्र ही इसकी शाखाएं देश-भर में फैल गई। देश के सांस्कृतिक और राष्ट्रीय नवजागरण में आर्य समाज की बहुत बड़ी देन रही है। हिन्दू समाज को इससे नई चेतना मिली और अनेक संस्कारगत कुरीतियों से छुटकारा मिला। स्वामी जी एकेश्वरवाद में विश्वास करते थे। उन्होंने जातिवाद और बाल-विवाह का विरोध किया और नारी शिक्षा तथा विधवा विवाह को प्रोत्साहित किया। उनका कहना था कि किसी भी अहिन्दू को हिन्दू धर्म में लिया जा सकता है। इससे हिंदुओं का धर्म परिवर्तन रूक गया।

स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपने विचारों के प्रचार के लिए हिन्दी भाषा को अपनाया। उनकी सभी रचनाएं और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ 'सत्यार्थ प्रकाश' मूल रूप में हिन्दी भाषा में लिखा गया। उनका कहना था-"मेरी आंख तो उस दिन को देखने के लिए तरस रही है। जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक सब भारतीय एक भाषा बोलने और समझने लग जाएंगे।" स्वामी जी धार्मिक संकीर्णता और पाखंड के विरोधी थे। अत: कुछ लोग उनसे शत्रुता भी करने लगे। इन्हीं में से किसी ने 1883 ई. में दूध में कांच पीसकर पिला दिया जिससे आपका देहांत हो गया। आज भी उनके अनुयायी देश में शिक्षा आदि का महत्त्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं।
संबंधित लेख[छिपाएँ]
देखें • वार्ता • बदलें
धर्म प्रवर्तक और संत

आदि शंकराचार्य · चैतन्य महाप्रभु · जीव गोस्वामी · दयानंद सरस्वती · निम्बार्काचार्य · सलीम चिश्ती · स्वामी रामानंद · समर्थ रामदास · स्वामी विवेकानन्द · स्वामी हरिदास · हितहरिवंश · गुरु नानक · मध्वाचार्य · रामकृष्ण परमहंस · रामानुज · वल्लभाचार्य · शिरडी साईं बाबा · आलवार · मधुसूदन सरस्वती · किनाराम बाबा · ईसा मसीह · संत ज्ञानेश्वर · आनन्दवर्धन · महाराज विद्यानंद · विट्ठलनाथ

सुरेरा में ईद का त्यौहार मनाया गया

सुरेरा में ईद त्यौहार पर युवाओं में उत्साह सुरेरा: ||नवरत्न मंडूसीया की कलम से|| राजस्थान शांति और सौहार्द और प्यार और प्रेम और सामाजिक समरस...