Sunday, 25 June 2017

समाज मे म्रत्युभोज सबसे बड़ा अभिशाप :- नवरत्न मन्डुसिया

नवरत्न मन्डुसिया की कलम से //आजादी के पहले  भी बहूत कुरुतीया थी और आज भी बहूत कुरुतीया है अब ये समझ मे नही आ रही है की आज मे और पहले मे क्या फर्क था उस समय से राजा राम मोहन राय जाति प्रथा के विरुद्ध थे पर्दा प्रथा के विरुद्ध थे और इनके अलावा म्रत्युभोज के विरुद्ध थे लेकिन आज तक म्रत्यु भोज बंद नही हुवा एक बात ज़रूर कहना चाहता हूँ हमारे गाँव सुरेरा मे पिछले 2001 से म्रत्यु भोज बंद है यानी पिछले 17 साल से दोस्तो म्रत्यु भोज बहूत ही बड़ी कुप्रथा है इसे हमे सभी समुदायों को मिलकर इस कुप्रथा का खात्मा करना चाहिये नही तो ये म्रत्यु भोज एक ना एक दिन दिन हमारे समाज को बहूत नुकसान पहुंचा देगी  समाज में जब किसी परिजन की मौत हो जाती है,तो अनेक रस्में निभाई जाती हैं।उनमे सबसे आखिरी रस्म के तौर पर मृत्यु भोज देने की परंपरा निभाई जाती है।जिसके अंतर्गत गाँव या मौहल्ले के सभी लोगों को भोजन कराया जाता है।इस दिन सभी (अड़ोसी, पडोसी, मित्र गण,रिश्तेदार) आमंत्रित अतिथियों को भोजन कराया जाता है। इस भोज में सभी को पूरी और अन्य व्यंजन परोसे जाते हैं।अब प्रश्न उठता है क्या परिवार में किसी प्रियजन की मृत्यु के पश्चात् इस प्रकार से भोज देना उचित है ? कब तक हम इस भीषण कुप्रथा से हम जुझते रहेंगे दोस्तो ये कोई एक समुदाय से नही है इस कुप्रथा को हमे पूरे समुदायों को ही मिटानी चाहिये जिससे की हमे इस कुप्रथा से छुटकारा मिल सके क्या यह हमारी संस्कृति का गौरव है की हम अपने ही परिजन की मौत को जश्न के रूप में मनाएं?अथवा उसके मौत के पश्चात् हुए गम को तेरह दिन बाद मृत्यु भोज देकर इतिश्री कर दें ? क्या परिजन की मृत्यु से हुई क्षति तेरेह दिनों के बाद पूर्ण हो जाती है, अथवा उसके बिछड़ने का गम समाप्त हो जाता है? क्या यह संभव है की उसके गम को चंद दिनों की सीमाओं में बांध दिया जाय और तत्पश्चात ख़ुशी का इजहार किया जाय। क्या यह एक संवेदन शील और अच्छी परंपरा है? हद तो जब हो जाती है जब एक गरीब व्यक्ति जिसके घर पर खाने को पर्याप्त भोजन भी उपलब्ध नहीं है उसे मृतक की आत्मा की शांति के लिए मृत्यु भोज देने के लिए मजबूर किया जाता है और उसे किसी साहूकार से कर्ज लेकर मृतक के प्रति अपने कर्तव्य पूरे करने के लिए मजबूर होना पड़ता है।और हमेशा के लिए कर्ज में डूब जाता है,सामाजिक या धार्मिक परम्परा निभाते निभाते गरीब और गरीब हो जाता है।कितना तर्कसंगत है यह मृत्यु भोज ?
क्या तेरहवी के दिन धार्मिक परम्पराओं का निर्वहन सूक्ष्म रूप से नहीं किया जा सकता,जिसमे फिजूल खर्च को बचाते हुए सिर्फ शोक सभा का आयोजन हो।मृतक को याद किया जाय उसके द्वारा किये गए अच्छे कार्यों की समीक्षा की जाय।उसके न रहने से हुई क्षति का आंकलन किया जाये लेकिन उनकी म्रत्यु पर पूर्ण रुप से म्रत्युभोज बंद किया जाये जिसमे समाज का नाम बढेगा और आने वाली पीढ़ी मे बहूत से सकारात्मक नींव मजबूत होगी आज से आप म्रत्युभोज नही खाये ये अपने दिल दिमाग मे ठाने ताकि एक अच्छी मिसाल कायम हो सके :- नवरत्न मन्डुसिया की कलम से.



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