Wednesday 16 August 2017

क्योंकि संघर्ष ही जीवन है :- बल्लू राम मावलिया अभयपुरा

MOTIVATIONAL/प्रेरणादायक


प्रिय साथियों...
जीवन संघर्ष का ही दूसरा नाम है । इस सृष्टि में छोटे-से-छोटे प्राणी से लेकर बड़े-से-बड़े प्राणी तक, सभी किसी-न-किसी रूप में संघर्षरत हैं । जिसने संघर्ष करना छोड़ दिया, वह मृतप्राय हो गया । जीवन में संघर्ष है प्रकृति के साथ, स्वयं के साथ, परिस्थितियों के साथ । तरह-तरह के संघर्षों का सामना आए दिन हम सबको करना पड़ता है और इनसे जूझना होता है । जो इन संघर्षों का सामना करने से कतराते हैं, वे जीवन से भी हार जाते हैं, जीवन भी उनका साथ नहीं देता ।
सफलता व कामयाबी  की चाहत तो सभी करते हैं, लेकिन उस सफलता को पाने के लिए किए जाने वाले संघर्षों से कतराते हैं । मिलने वाली सफलता सबको आकर्षित भी करती है, लेकिन उस सफलता की प्राप्ति के लिए किए जाने वाले संघर्ष को कोई नहीं देखता, न ही उसकी ओर आकर्षित होता है, जबकि सफलता तक पहुँचने की वास्तविक कड़ी वह संघर्ष ही है । हम जिन व्यक्तियों को सफलता की ऊँचाइयों पर देखते हैं, उनका भूतकाल अगर हम देखेंगे तो हमें जानने को मिलेगा की यह सफलता जीवन के साथ बहुत संघर्ष से प्राप्त हुई है ।
वास्तव में जब व्यक्ति अपने संघर्षों से दोस्ती कर लेता है, प्रसन्नता के साथ उन्हें अपनाता है, उत्साह के साथ चलता है तो संघर्ष का सफर उसका साथ देता है और उसे कठिन-से-कठिन डगर को पार करने में मदद करता है । लेकिन यदि व्यक्ति जबरन इसे अपनाता है, बेरुखी के साथ इस मार्ग पर आगे बढ़ता है, तो वह भी ज्यादा दूर तक नहीं चल पाता, बड़ी कठिनाई के साथ ही वह थोड़ा-बहुत आगे बढ़ पाता है । जब जीवन में एवरेस्ट जैसी मंजिल हो और उस तक पहुँचने के लिए कठिन संघर्षों का रास्ता हो, तो घबराने से बात नहीं बनती, संघर्षों को अपनाने से ही मंजिल मिल पाती है ।
जब हम संघर्ष करते हैं, तभी हमें अपने बल व सामर्थ्य का पता चलता है । संघर्ष करने से ही आगे बढ़ने का हौसला, आत्मविश्वास मिलता है और अंततः हम अपनी मंजिल को हासिल कर लेते हैं ।
वास्तव में हमारे जीवन में भी संघर्ष  ही वह चीज है, जिसकी हमें सचमुच आवश्यकता होती है । यही हमें निखारता है और हर पल अधिक शक्तिशाली, अनुभवी बनाता है । यदि हमें भी बिना किसी संघर्ष के ही सब कुछ मिलने लगे तो न तो हम उसकी कीमत समझेंगे और न ही हम विकसित हो पाएँगे, बल्कि अपंग ही रह जाएँगे...।

बल्लूराम मावलिया अभयपुरा की कलम से 

Thursday 10 August 2017

बल्लू राम मावलिया अभयपूरा नाँगल के लब्ज

जानना है अगर मुझे तो आजमाकर देखिए।
हूं मैं कितना पुर-सुकून आँखों को पढ़कर देखिए।

लग रहा हूं खुश मगर, टूटा हुआ मैं ख्वाब हूं
मेरी शायरियों को जरा दर्दों में गाकर देखिए।

होता हरदम सच नहीं आँखों से दिखता जो हमें है
अब जरा सागर के अंदर आप उतर कर देखिए।

कहते हैं किसको सुकून यह बात अगर हो जानना
तो बचपने पर आप थोडा मुस्कुराकर देखिए l

फलसफा तो दर्द का हरबार मिलता जिन्दगी में
आप भी गरीब किसान के हाल जानकर देखिए......

किताब-ए-दिल का कोई सफा खाली नहीं होता।
निगाहें वो भी पढ लेती हैं, जो लिखा नहीं होता।।

दिल का साफ हूं दुख में भी मुस्कुराऊंगा

दुश्मनी मत लो दोस्तों मैं हर वक्त काम आऊंगा...
*बल्लूराम मावलिया अभयपुरा*
*जिलाध्यक्ष किसान बचाओ देश बचाओ संघर्ष समिति सीकर*

Friday 30 June 2017

Do not add crime to righteousness

And if you are adding, give a reply to me!
"Name the name of any person who has not been born in any caste or religion?
It is a simple fact that the culprit will be of any caste or creed.
Now the leaders of that caste will tell you not only the criminal offense but also the punishment.
By which you are misguided ... stand up against the culprit and the culprit is saved.
You have already saved thousands of such criminals and punished innocent people.
The culprits who are criminals are growing up and those innocent people have forced them to become criminals.
Do you want to make India a country of crime?
If not, then before knowing any gaudy post, know the truth by putting your mind on it.
The culprit is just a criminal.
If you are a responsible citizen of India then please save the country.
* Navratna Mandusiya *
( *Author/wtiter* )
-Jay Bhim-Jay India
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Sunday 25 June 2017

दलित समाज की बेटी चिकित्सा सेवा के साथ साथ समाज सेवा मे भी अव्वल

नवरत्न मन्डुसिया की कलम से //वैसे तो हमारे देश भारत में सदियों से अनेक महान संतो ने जन्म लेकर इस भारतभूमि को धन्य किया है जिसके कारण भारत को विश्वगुरु कहा जाता है और अब धीरे धीरे दलित युवा भी आगे बढ़ रहे है राजस्थान प्रांत के सीकर जिले के दाँतारामगढ़ के गाँव डुकिया मे जन्मी एक 23 वर्षीय कुमारी गंगा युवा समाज सेविका इन दिनो बहूत चर्चाऔ मे है क्यों की यह युवा समाज सेवा के साथ साथ शिक्षा मे भी बेहतर अव्वल है इनकी शिक्षा विज्ञान वर्ग से बी.एस.सी और जी.एन.एम नर्सिंग करने के बाद पोस्ट बी.एससी नर्सिंग कर रही है अब हम यह देख सकते है की दलित युवा गंगा कुमारी चिकित्सा सेवा के साथ साथ अपने जीवन के अनमोल समय को समाज सेवा समर्पण कर रही है गंगा कुमारी वर्तमान दांतारामगढ़ के वार्ड नम्बर 28 से पंचायत सिमिति सदस्य है गंगा कुमारी रविदासी समाज से अपना लिंक रखती है तथा महिलाओ को आगे बढ़ने की तथा शिक्षा पर जोर देने आदि को संयोजित करती है दलितों के साथ साथ गंगा कुमारी अन्य समुदायों को भी आगे बढ़ने के लिये प्रेरित करती है तथा बालिकाओं को शिक्षा दिलाना भूर्णहत्यायें को रोकना दहेज प्रथा पर रोक लगाना आदि उद्देश्य को लेकर चलना ही जीवन के लिये महत्वपूर्ण क़दम बताये है  गंगा कुमारी का कहना है की जब जब हमारे देश में ऊचनीच भेदभाव, जातीपाती, धर्मभेदभाव अपने चरम अवस्था पर हुआ है तब तब हमारे देश भारत में अनेक महापुरुषों ने इस धरती पर जन्म लेकर समाज में फैली बुराईयों, कुरूतियो को दूर करते हुए अपने बताये हुए सच्चे मार्ग पर चलते हुए भक्ति भावना से पूरे समाज को एकता के सूत्र में बाधने का काम किया है इन्ही महान संतो में संत गुरु रविदास जी का भी नाम आता है जो की एक 15वी सदी के एक महान समाज सुधारक, दार्शनिक कवि और धर्म की भेदभावना से ऊपर उठकर भक्ति भावना दिखाते है और बाबा साहेब का नाम भी बहूत उल्लेखनीय है तथा सर्व समाज को साथ लेकर चलना भी महत्वपूर्ण उद्देश्य मानती है :- नवरत्न मन्डुसिया की कलम से 
समाज सेविका गंगा कुमारी 

साहू जी महाराज

 चरित्र उन्नायक समग्र सामाजिक क्रांति के अग्रदूत साहू जी महाराज कोल्हापुर रियासत के शासक माननीय अप्पा साहिब घाटके के पुत्र थे। उनका जन्म 26 जून 1874 को कुर्मी परिवार में हुआ था। माता का नाम राधाबाई था। बचपन से मेधावी, कुशाग्र बुद्धि के शांतिप्रिय तथा दयावान थे। बचपन में वे यशवंत राय के नाम से जाने जाते थे। बालक यशवंत राय को 12 वर्ष की अल्पायु में ही राजपाट की जिम्मेदारी सौंप दी गई। अब वे साहूजी महाराज कहलाने लगे। जब उन्होंने राज्य की सत्ता की बागडौर संभाली उस समय चारो ओर ब्राम्हणों का वर्चस्व था। उनके राज्य में एक सौ मंत्री ब्राम्हण थे। साहू जी महाराज ने अपने राज्य में ब्राम्हणो का प्रभुत्व कम किया और बहुजन जातियो को प्रतिनिधित्व दिया। छत्रपति शाहूजी महाराज जी जिस समय गद्दी पर बैठे, उस समाज समाज के दशा कई दृष्टियों से सोचनीय थी l जाति-पात, ऊँच-नीच, छुआ-छूत, मानवाधिकारों की असमानता, निर्धन कृषकों और मजदूरों की दीन-हीन स्थिति, पाखंडवाद भरी धर्म पद्धति, वर्ण-व्यवस्था को घोर तांडव असहाय जनता को उबरने नहीं दे रहा था l वर्ण-व्यवस्था में चौथा वर्ण जो आता है यानि कि शूद्र जिसका कोई अपना अस्तित्व नहीं था, उसकी दशा दायनीय थी l उस समय वर्ण-व्यवस्था और ऊँच-नीच के भेदभाव को मिटाने के लिए "सत्य शोधक समाज" लगातार कार्य कर रहा था जिसकी स्थापना महात्मा ज्योतिबाफुले जी ने की थी l
महाराष्ट्र में उस समय ब्राह्मणों की संख्या 5 प्रतिशत थी लेकिन फिर भी वे ब्रिटिश शासन में हर स्थान पर नियुक्त थे l राजनीति, सरकारी नौकरियां, धर्मदण्ड सभी कुछ उनके हाथ में था l ऐसी विषम स्थिति में अबोध और गरीब जनता का जीवन नारकीय हो गया था l ब्राह्मण शिक्षा पर अपना एकाधिकार बनाये हुए थे वे गैर-ब्राह्मणों को शिक्षा पाने पर प्रतिबन्ध लगाये हुए थे l वेदों का अध्ययन ब्राह्मणों के अतिरिक्त कोई जाति नहीं कर सकती थी l
छत्रपति शाहूजी महाराज जी को महात्मा ज्योतिबाफुले जी के संघर्षों से प्रेरणा मिल रही थी और उनके पथ पर चलने को आतुर थे l इस दिशा में छत्रपति शाहूजी जी महाराज को सावधानी और बुद्धिमानी से काम लेना था l इसके लिए सबसे पहले आवश्यकता थी कि जनमत तैयार किया जाए तथा जनता में भाव उदय किया जाय कि वह स्वयं नाना प्रकार की कुरीतियों एवं बुराइयों को दूर करने के लिए सक्रिय और सचेत हो जाए l
वह समय आ गया जब छत्रपति शाहूजी जी महाराज ने अपना शासन दृढ़तापूर्वक प्रारम्भ कर दिया l वे आस-पास के गाँव में जाते, सभी किसानों और मजदूरों से खुलकर मिलते और उनकी समस्याओं को सुनते और उनकी समस्या का निदान करते l कभी-कभी अपना राजकीय भोज गरीबों के सड़े-गले खाने में बदल देते l डॉक्टरों के मना करने पर भी वे गरीबों का बासी, कच्चा और रखा हुआ भोजन खा लेते थे l वे राजा होकर भी मानवीय संवेदनशीलता से सम्पन्न थे l
छत्रपति शाहूजी महाराज जी की धारणा थी कि शासन में सभी वर्गों व जातियों के लोगों की साझेदारी शासन को संतुलित और चुस्त बनाएगी l किसी एक जाति के लोगों का शासन प्रजा की वास्तविक भावना और आकांक्षा का प्रतिनिधित्व नहीं करता l उन्होंने ऐसा ही किया l सर्वप्रथम उन्होंने अपने दरबार से ब्राह्मणों को वर्चस्व कम किया और सभी वर्गों की भागीदारी निश्चित की l निर्बल वर्गों के लोगों को उन्होंने नौकरियों पर ही नहीं रखा बल्कि वे उनकों साथ लेकर चलने भी लगे l इससे ब्राह्मणों में रोष उत्पन्न हो गया और वो लोगों में भ्रम फैलाने लगे कि छत्रपति शाहूजी महाराज अनुभवहीन है तथा वे अक्षम लोगों को सरकारी पदों पर नियुक्त कर रहे है l छत्रपति शाहूजी महाराज जी अपनी विचारधारा पर अटल थे और उन पर ब्राह्मणों के इस रवैये का कोई फर्क नहीं पड़ा l
छत्रपति शाहूजी महाराज जी ने अनुभव किया कि अछूत वर्ग तथा पिछड़े वर्ग के लोग प्रायः अशिक्षित और निर्धन है l वे आर्थिक दरिद्रता और सामाजिक अपमान को एक लम्बी परम्परा से भोग रहे है l छत्रपति शाहूजी जी महाराज जी की इच्छा थी कि शिक्षा का प्रसार छोटी जातियों एवं वर्गों के बीच किया जाए जिससे उनकों अपने अधिकारों का सही ज्ञान हो सके l इसके लिए उन्होंने स्वयं की देख-रेख में स्कूलों की स्थापना करवाई और शिक्षा के द्वार सभी के लिए खोल दिए l अपने राज्य में स्कूली छात्रो को निशुल्क शिक्षा की पुस्तके एवम् भोजन की व्यवस्था की।
नैतिक और भौतिक विकास से छत्रपति शाहूजी महाराज जी का एक ही प्रयोजन और एक ही मतलब था और वह था निर्बल दलितों तथा शोषितों की शिक्षा, स्वास्थ्य तथा कृषि सम्बन्धी विकास l उनकी प्रबल आकांक्षा थी कि उस तथाकथित शूद्र और अतिशूद्र जातियों को शासन व्यवसाय तथा स्थानीय निकाय में अधिक से अधिक हिस्सा मिले l जिसके लिए जरुरी था कि पहले उनको शिक्षित किया जाए l उन्होंने अपने राज्य में इन्हें आरक्षण की व्यवस्था की तथा अधिकार दिया तथा
बाबा साहेब डा० भीमराव अम्बेडकर जी बड़ौदा नरेश की छात्रवृति पर पढ़ने के लिए विदेश गए लेकिन छात्रवृति बीच में ही ख़त्म हो जाने के कारण उन्होंने वापस भारत आना पड़ा l तब छत्रपति शाहू जी महाराज ने बाबा साहेब को विदेश में आगे की पढाई जारी रखने के लिए पैसे दिए और उनको आगे बढ़ाने का भरपूर प्रयास किया l छत्रपति शाहू जी महाराज जी डा० अम्बेडकर जी से बहुत ही प्रभावित थे उनको जैसे ज्ञात हो गया था कि बहुजन समाज का उद्धार करने के लिए डा० अम्बेडकर का जन्म हुआ है l
अपने राज्य में उन्होंने दुकाने खुलवाई तालाब खुदवाये कुए खुदवाये सस्ता अनाज उपलब्ध करवाया आदि महत्वपूर्ण कार्य किये।
सती प्रथा एवम् विधवा विवाह के लिए राजाराम मोहन राय को जाना जाता है, किन्तु वास्तव में साहूजी ने ही विधवा स्त्रियों के लिए पुनर्विवाह रजिस्ट्रेसन कानून बनाकर देश में राष्ट्रिय एकता, धर्म निरपेक्षता कायम की और मनुवादियों के किले ध्वंश कर डाले। साहूजी ने 1920 में हिन्दू संहिता बनाकर राज्य में कानून लागू किया, इसी आधार पर ही बाबा साहेब ने हिन्दू कोड बिल की स्थापना की थी। कोल्हापुर राज्य और बहुजन समाज के लिए यह अत्यंत दुखद पल ही था कि छत्रपति शाहूजी महाराज जी निरंतर स्वास्थ्य ख़राब होने के कारण मात्र 48 वर्ष की आयु में 6 मई 1922 को लगभग 6 बजे वह इस संसार को विदा कह दिया।
इंसान दो प्रकार के होते है एक तो वे जो अपने परिवार के भरण-पोषण तक ही सीमित रहते है दूसरे वे जो अपने परिवार के साथ-साथ दूसरे परिवार को भरण-पोषण करने में अपना जीवन व्यतीत कर देते है l अपना जीवन संकट में डाल कर दीन-दुखियों की मदद करते है, खुद हानि सहकर दूसरों को लाभ पहुंचाते है l ऐसे ही लोग दुनिया में अमर हो जाते है और हमेशा याद किये जाते है
छत्रपति शाहूजी महाराज को शत शत नमन ।

महिलाओ की समानता को लेकर क्रांतिकारी युवा समाज सेविका ममता सिंह के क्रांतिकारी हल्ला बोल

नवरत्न मन्डुसिया की कलम से //ज्ञान की रोशनी में जीने वाली महिलाएं दूसरे को नेकी के मार्ग पर चलने को प्रेरित करती हैं। इनका सुंदर व्यवहार दूसरों के घरों में प्रेम व शांति का वातावरण पैदा करता है। यह विचार  युवा सोच की बुलंद आवाज़ और दलितों की मसीहा के रुप मे दलितों की आवाज़ बन रही युवा क्रान्तिकारी जिला परिषद सदस्य ममता सिंह निठारवाल का कहना है  पुरुष प्रधान इस देश में महिलाओं को बराबरी का सम्मान मिलना चाहिए। महिलाओं की समानता से घर-परिवार की खुशहाली निर्भर है। ममता सिंह निठारवाल ने बताया की भारत में आज़ादी के बाद से ही वोट देने का अधिकार तो मिल गया लेकिन  आज भी  भारत की पंचायतों में महिलाओं की 50 प्रतिशत से अधिक भागीदारी है। इसलिये सर्व समाज की ज्यादातर महिलाओ को आगे आना चाहिये और समानता का अधिकार है उसका पूरा फ़ायदा उठाना चाहिये महिलाओं को समानता का दर्जा दिलाने के लिए लगातार संघर्ष करने वाली एक महिला वकील बेल्ला अब्ज़ुग के प्रयास से 1971 से 26 अगस्त को 'महिला समानता दिवस' के रूप में मनाया जाने लगा। महिला समानता दिवस मानाने वाला पहला देश न्यूजीलैंड था तथा भारत में महिलाओं की स्थिति बहूत ही दयनीय थी  भारत ने महिलाओं को आज़ादी के बाद से ही मतदान का अधिकार पुरुषों के बराबर दिया,
परन्तु यदि वास्तविक समानता की बात करें तो भारत में आज़ादी के इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी महिलाओं की स्थिति गौर करने के लायक है। यहाँ वे सभी महिलाएं नज़र आती हैं, जो सभी प्रकार के भेदभाव के बावजूद प्रत्येक क्षेत्र में एक मुकाम हासिल कर चुकी हैं और सभी उन पर गर्व भी महसूस करते हैं। परन्तु इस कतार में उन सभी महिलाओं को भी शामिल करने की ज़रूरत है, जो हर दिन अपने घर में और समाज में महिला होने के कारण असमानता को झेलने के लिए विवश है। चाहे वह घर में बेटी, पत्नी, माँ या बहन होने के नाते हो या समाज में एक लड़की होने के नाते हो। आये दिन समाचार पत्रों में लड़कियों के साथ होने वाली छेड़छाड़ और बलात्कार जैसी खबरों को पढ़ा जा सकता है, परन्तु इन सभी के बीच वे महिलाएं जो अपने ही घर में सिर्फ इसीलिए प्रताड़ित हो रही हैं, क्योंकि वह एक औरत है।
ममता सिंह निठारवाल का कहना है की आज के युग मे जात-पांत, ऊंच-नीच, गरीबी-अमीरी, धर्म-सम्प्रदाय व महिला-पुरुष के भेदभाव को खत्म करके आध्यात्मिक जागृति पैदा कर रहा है। और ज्यादा से ज्यादा एक दूसरे मे प्रेम भाव की जागृति पेदा होनी चाहिये क्यों की जहाँ महिलाओ की पूजा होती है वहा पर देवता निवास करते है :- नवरत्न मन्डुसिया की कलम से
ममता सिंह निठारवाल एक कार्यक्रम मे भाषण देते हुवे 

समाज मे म्रत्युभोज सबसे बड़ा अभिशाप :- नवरत्न मन्डुसिया

नवरत्न मन्डुसिया की कलम से //आजादी के पहले  भी बहूत कुरुतीया थी और आज भी बहूत कुरुतीया है अब ये समझ मे नही आ रही है की आज मे और पहले मे क्या फर्क था उस समय से राजा राम मोहन राय जाति प्रथा के विरुद्ध थे पर्दा प्रथा के विरुद्ध थे और इनके अलावा म्रत्युभोज के विरुद्ध थे लेकिन आज तक म्रत्यु भोज बंद नही हुवा एक बात ज़रूर कहना चाहता हूँ हमारे गाँव सुरेरा मे पिछले 2001 से म्रत्यु भोज बंद है यानी पिछले 17 साल से दोस्तो म्रत्यु भोज बहूत ही बड़ी कुप्रथा है इसे हमे सभी समुदायों को मिलकर इस कुप्रथा का खात्मा करना चाहिये नही तो ये म्रत्यु भोज एक ना एक दिन दिन हमारे समाज को बहूत नुकसान पहुंचा देगी  समाज में जब किसी परिजन की मौत हो जाती है,तो अनेक रस्में निभाई जाती हैं।उनमे सबसे आखिरी रस्म के तौर पर मृत्यु भोज देने की परंपरा निभाई जाती है।जिसके अंतर्गत गाँव या मौहल्ले के सभी लोगों को भोजन कराया जाता है।इस दिन सभी (अड़ोसी, पडोसी, मित्र गण,रिश्तेदार) आमंत्रित अतिथियों को भोजन कराया जाता है। इस भोज में सभी को पूरी और अन्य व्यंजन परोसे जाते हैं।अब प्रश्न उठता है क्या परिवार में किसी प्रियजन की मृत्यु के पश्चात् इस प्रकार से भोज देना उचित है ? कब तक हम इस भीषण कुप्रथा से हम जुझते रहेंगे दोस्तो ये कोई एक समुदाय से नही है इस कुप्रथा को हमे पूरे समुदायों को ही मिटानी चाहिये जिससे की हमे इस कुप्रथा से छुटकारा मिल सके क्या यह हमारी संस्कृति का गौरव है की हम अपने ही परिजन की मौत को जश्न के रूप में मनाएं?अथवा उसके मौत के पश्चात् हुए गम को तेरह दिन बाद मृत्यु भोज देकर इतिश्री कर दें ? क्या परिजन की मृत्यु से हुई क्षति तेरेह दिनों के बाद पूर्ण हो जाती है, अथवा उसके बिछड़ने का गम समाप्त हो जाता है? क्या यह संभव है की उसके गम को चंद दिनों की सीमाओं में बांध दिया जाय और तत्पश्चात ख़ुशी का इजहार किया जाय। क्या यह एक संवेदन शील और अच्छी परंपरा है? हद तो जब हो जाती है जब एक गरीब व्यक्ति जिसके घर पर खाने को पर्याप्त भोजन भी उपलब्ध नहीं है उसे मृतक की आत्मा की शांति के लिए मृत्यु भोज देने के लिए मजबूर किया जाता है और उसे किसी साहूकार से कर्ज लेकर मृतक के प्रति अपने कर्तव्य पूरे करने के लिए मजबूर होना पड़ता है।और हमेशा के लिए कर्ज में डूब जाता है,सामाजिक या धार्मिक परम्परा निभाते निभाते गरीब और गरीब हो जाता है।कितना तर्कसंगत है यह मृत्यु भोज ?
क्या तेरहवी के दिन धार्मिक परम्पराओं का निर्वहन सूक्ष्म रूप से नहीं किया जा सकता,जिसमे फिजूल खर्च को बचाते हुए सिर्फ शोक सभा का आयोजन हो।मृतक को याद किया जाय उसके द्वारा किये गए अच्छे कार्यों की समीक्षा की जाय।उसके न रहने से हुई क्षति का आंकलन किया जाये लेकिन उनकी म्रत्यु पर पूर्ण रुप से म्रत्युभोज बंद किया जाये जिसमे समाज का नाम बढेगा और आने वाली पीढ़ी मे बहूत से सकारात्मक नींव मजबूत होगी आज से आप म्रत्युभोज नही खाये ये अपने दिल दिमाग मे ठाने ताकि एक अच्छी मिसाल कायम हो सके :- नवरत्न मन्डुसिया की कलम से.



सुरेरा में ईद का त्यौहार मनाया गया

सुरेरा में ईद त्यौहार पर युवाओं में उत्साह सुरेरा: ||नवरत्न मंडूसीया की कलम से|| राजस्थान शांति और सौहार्द और प्यार और प्रेम और सामाजिक समरस...